तो अशोक गहलोत ने कांग्रेस आला कमान और राहुल गांधी का भरोसा तोड़ दिया। 

तो अशोक गहलोत ने कांग्रेस आला कमान और राहुल गांधी का भरोसा तोड़ दिया। 
राजनीति में सत्ता मोह छोड़ना आसान नहीं।
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अशोक गहलोत राजस्थान के सीएम बने या नहीं, अब यह इतना अहम नहीं है। अहम सवाल कांग्रेस आलाकमान और राहुल गांधी के भरोसे के टूटने का है। अब तक यह माना जाता था कि अशोक गहलोत आला कमान के भरोसे के हैं। राहुल गांधी को गुलाम नबी आजाद, एके एंथोनी, कपिल सिब्बल से भी ज्यादा भरोसा गहलोत पर करने लगे थे। इस भरोसे की वजह से ही गहलोत को संगठन का राष्ट्रीय महासचिव का पद दिया, लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री के पद को लेकर गहलोत ने विधायक दल की बैठक में प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट से जो बराबरी की उससे अब राहुल गांधी का भरोसा टूट गया है। सूत्रों के अनुसार 12 दिसम्बर को जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक में केन्द्रीय पर्यवेक्षक केसी वेणुगोपाल के सामने गहलोत ने साफ कहा कि विधायकों की राय के आधार पर ही मुख्यमंत्री का निर्णय हो। गहलोत के इस व्यवहार की किसी को भी उम्मीद नहीं थी क्योंकि विधायकों से तो एक लाइन का प्रस्ताव पास करया था। यही वजह रही कि वेणुगोपाल को फिर सभी विधायकों की राय जाननी पड़ी। इस प्रक्रिया से साफ हो गया कि मुख्यमंत्री के पद को लेकर सचिन पायलट और अशोक गहलोत आमने सामने हैं। 12 दिसम्बर को प्रदेश कार्यालय के अंदर और बाहर सड़क पर जो कुछ भी हुआ उससे राहुल गांधी नाराज हैं। उन्हें लगता है कि राजस्थान की जनता ने कांग्रेस पर जो भरोसा किया, उस पर कांग्रेस नेता पानी फेर रहे हैं। यही वजह रही कि देर रात को राहुल गांधी ने गहलोत और पायलट को दिल्ली बुला लिया। असल में राहुल गांधी चाहते थे कि गहलोत राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहे और पायलट राज्य की बागडोर संभाले। यदि 12 दिसम्बर को गहलोत जयपुर में अपना दावा प्रस्तुत नहीं करते तो पायलट का नाम सीएम पद के लिए तय हो जाता। हालांकि अभी अधिकांश विधायकों ने पायलट के पक्ष में राय दी है। लेकिन अब गहलोत की नाराजगी का डर हो गया है। मई में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए राहुल गांधी किसी भी स्थिति में गहलोत को नाराज नहीं करना चाहते हैं। भले ही आला कमान अभी गहलोत के दबाव को स्वीकार कर ले, लेकिन अब आला कमान का भरोसा गहलोत पर नहीं रहा है। जब गहलोत एक राज्य के मुख्यमंत्री का मोह नहीं छोड़ सकते हैं तो फिर बड़ा भरोसे कैसे किया जा सकता हैं। 2003 में चुनाव हारने के बाद गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया। फिर 2008 में राजस्थान को सीएम। 2013 में हारने पर फिर से राष्ट्रीय महासचिव बना दिया। गुजरात चुनाव में गहलोत ने जो भूमिका निभाई, उससे खुश होकर तो उन्हें संगठन का महासचिव बना दिया। 2003 में पहली बार सीएम बनने से पहले गहलोत कई बार केन्द्र सरकार में मंत्री रहे। गहलोत हमेशा कांग्रेस आला कमान के भरोसेमंद रहे, लेकिन यह पहला मौका है, जब गहलोत ने भरोसे को तोड़ा है।
आसान नहीं है सत्ता का मोह छोड़ना:
राजनीति में रह कर सत्ता का मोह छोड़ना आसान नहीं है। 11 दिसम्बर तक गहलोत कह रहे थे कि राहुल गांधी जो कहेंगे वो ही होगा। कांग्रेस के किसी भी नेता को पद की लालसा नहीं रखनी चाहिए। हाईकमान तय करता है कि किस नेता का उपयोग कहां हो, लेकिन चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस को बहुमत मिलने पर 12 दिसम्बर को गहलोत की भाषा बदल गई। 12 दिसम्बर को गहलोत ने कहा कि कांग्रेस के विधायक तय करेंगे कि मुख्यमंत्री कौन होगा? असल में बड़े नेता छोटे कार्यकर्ताओं को उपदेश तो देते हैं, लेकिन खुद अपने ही उपदेशों पर अमल नहीं करते। जब गहलोत जैसा नेता मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ सकता तो मंडल स्तर के कार्यकर्ता से पार्षद के पद को छोड़ने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। कुछ भी छोड़ना आसान नहीं होता है।
एस.पी.मित्तल) (13-12-18)
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