न संसद को मानेंगे, न सुप्रीम कोर्ट को। क्या यही किसान आंदोलन है? आखिर संवैधानिक प्रक्रिया में शामिल क्यों नहीं होना चाहते पंजाब के किसान? देश का आम किसान नए कृषि कानूनों से सहमत। यदि पंजाब का किसान फसल का कॉन्ट्रेक्ट नहीं करे तो वह स्वतंत्र है।

देश के न्यायिक इतिहास में 12 जनवरी को यह पहला अवसर रहा, जब सुप्रीम कोर्ट भी लाचार और बेबस नजर आया। जिन किसानों को राहत देने के लिए केन्द्र सरकार के कानूनों पर रोक लगाई तथा कानूनो की समीक्षा के लिए कृषि विशेषज्ञों की जो कमेटी बनाई, सुप्रीम कोर्ट के ऐसे आदेश को स्वीकार करने से इंकार कर दिया गया। क्या दिल्ली की सीमाओं को घेर कर बैठे कुछ किसान स्वयं को देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट से ऊपर समझते हैं? क्या यही किसान आंदोलन हैं? सब जानते हैं कि कुछ किसान उस कानून को वापस करने की मांग कर रहे हैं जो संवैधानिक तरीके से देश की संसद से मंजूर हुआ है। हालांकि संसद से बने कानून पर सुप्रीम कोर्ट को रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा दी। लेकिन इसके बावजूद भी दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसान खुश नहीं हुए हैं। किसानों के प्रतिनिधियों ने सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी मानने से इंकार कर दिया है। सब जानते हैं कि दिल्ली के बाहर कांग्रेस शासित पंजाब के किसानों का जमावड़ा ज्यादा है। जबकि देश का आम किसान नए कृषि कानूनों से सहमत है। सवाल उठता है कि दिल्ली जैसा किसान आंदोलन महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश,तमिलनाडु आदि राज्यों में क्यों नहीं हो रहा? यदि पंजाब के किसान को परेशानी है तो शेष राज्यों के किसानों को भी परेशानी होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। सब जानते हैं कि नए कृषि कानूनों से कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव होंगे। किसान को खेत पर ही लागत की कई गुना राशि मिल जाएगी। प्राकृतिक आपदाओं की जोखिम भी कान्ट्रेक्ट करने वाले व्यक्ति की होगी। कानून में किसानों के हित सुरक्षित रखे गए हैं। कॉन्टे्रक्ट को तोडऩे का अधिकार सिर्फ किसान को दिया गया है। यदि पंजाब का किसान कॉन्टे्रक्ट नहीं करना चाहता है तो वह स्वतंत्र है। कॉन्टे्रक्ट करना किसी भी किसान के लिए बाध्यकारी नहीं है। कानून में जमीन का कॉन्ट्रेक्ट का भी कोई प्रावधान नहीं है। सिर्फ फसल का कॉन्ट्रेक्ट होगा, लेकिन इसके बावजूद भी भ्रम पुैलाया जा रहा है कि कॉन्ट्रेक्ट से किसान की जमीन छीन जाएगी। जो लोग दिल्ली को घेर कर बैठे हैं, उन्हें सुरक्षा का भी ख्याल रखना चाहिए। आंदोलन में अलगाववादी विचारधारा के लोग भी घुसपैठ कर रहे हैें। सुरक्षा एजेंसियों के पास ऐसे इनपुट है जिनसे पता चलता है कि आंदोलन में हिंसा हो सकती है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने हिंसा की आशंका जताई है। सवाल यह भी है कि आंदोलन स्थल पर बुजुर्ग, बच्चों और महिलाओं को क्यों लाया गया? क्या यह भी कोई साजिश का हिस्सा है? कड़कड़ाती सर्दी और कोरोना काल में बुजुर्गों और बच्चों को तो घर में रहने की सलाह दी जा रही है, लेकिन इसके बावजूद भी बुजुुर्गों और बच्चों को धरने पर बैठाया जा रहा है। आंदोलन स्थल पर अब तक 70 से भी ज्यादा लोगों की प्राकृतिक मृत्यु हो गई है। चूंकि बड़ी संख्या में लोग मौजूद है, इसलिए मौत का आंकड़ा प्रतिदिन बढ़ रहा है। अच्छा हो कि आंदोलनकारी किसान लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होकर समस्या का समाधान निकाले। दिल्ली की सीमाओं को जाम करने से करोड़ों लोगों को परेशानी हो रही है। करोड़ों रुपए का आर्थिक नुकसान भी हो रहा है। दिल्ली के आसपास के हजारों किसान अपने खेत की सब्जियां दिल्ली की मंडियों में नहीं पहुंचा पा रहे है। आंदोलन से खुद किसान को भारी नुकसान हो रहा है।

सिक्ख फॉर जस्टिस की वेबसाइट पर रोक

13 जनवरी को सरकार ने सिक्ख फॉर जस्टिस की वेबसाइट पर रोक लगा दी है। यह संगठन पंजाब के किसान आंदोलन को समर्थन कर रहा था। प्राप्त जानकारी के अनुसार वेबसाइट के माध्मय से किसानों के बीच भड़काऊ संदेश प्रसारित किए जा रहे थे। दिल्ली की सीमाएं के बाहर धरने पर बैठे किसानों के बीच सिक्ख फॉर जस्टिस के झंडे भी देखे गए हैं। खुफिया एजेंसियों का मानना है कि यह संगठन खालिस्तान का समर्थक रहा है। 

S.P.MITTAL BLOGGER (13-01-2021)

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