तो कट्टरपंथी पवित्र रमजान माह की शिक्षाओं को क्यों नहीं समझते? कितनी अच्छी है जकात की परम्परा।

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17 जून को रमजान के 22वें रोजे के दिन मेरे एक मुस्लिम मित्र मिलने आए। उनके हाथ में मिठाई का डिब्बा और एक लिफाफा था। मुझे मिठाई का डिब्बा इसलिए दिया कि उनकी छोटी बेटी ने पहली मर्तबा रोजे रखे। नोटों से भरा लिफाफा इसलिए दिया ताकि मैं जरूरतमंद व्यक्तियों तक पहुंचा दूं। चूंकि मित्र ने अपना नाम उजागर नहीं करने का वायदा लिया इसलिए मैं उनका नाम यहां नहीं लिख रहा हूं। मित्र का कहना था कि हमारी धार्मिक परम्परा में रमजान माह में आमदनी का 3 प्रतिशत तक जकात देने का नियम है। जकात देकर हम किसी पर अहसान नहीं करते बल्कि स्वयं को ही बुराईयों से बचाते हैं। मुस्लिम धर्म के अनुसार जकात की राशि जरूरतमंद व्यक्ति को ही दी जाए। मुझे पूरा भरोसा है कि आप जरूरतमंद व्यक्तियों तक जकात को पहुंचा देंगे। मैंने उसी भरोसे के अनुरूप सामाजिक सरोकार से जुड़े सोमरत्न आर्य को मेरे ऑफिस में आमंत्रित किया और नोटों का लिफाफा थमा दिया। आर्य अब इस जकात को लोहागल में चलने वाले वृद्वाश्रम को दे देंगे। यह वृद्धाश्रम जन सहयोग से ही चलता है। यहां रहने वाले बेसहारा वृद्धों की देखभाल बहुत ही अच्छे तरीके से होती है। यानि मेरे मुस्लिम मित्र ने जिस धार्मिक भावना से जकात दी, उसका सही उपयोग हो जाएगा। मैं बहुत चाहता था कि मित्र के नाम का उल्लेख मैं ब्लॉग में करूं, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूं। सवाल उठता है कि जब धर्म में इतनी अच्छी शिक्षा है तो फिर कट्टरपंथी आए दिन निर्दोष लोगों को क्यों मार रहे हैं? रमजान माह में रोजे का मतलब सिर्फ भूखा रहना ही नहीं है बल्कि सब बुराईयों से अपने आप को बचाना है। लगातार 17 घंटे तक जून माह की भीषण गर्मी में बिना पानी के रहना अपने आप में तप तो है ही, लेकिन साथ ही इस अवधि में अपनी जुबान से ना तो बुरा बोलना और ना कानों से किसी की बुराई सुनना भी है। बुराई के वक्त आंख भी खुली नहीं रहनी चाहिए। लेकिन इन सब अच्छी शिक्षाओं को दरकिनार कर कश्मीर घाटी मेें आतंकवादी पुलिस जवानों को ही मौत के घाट उतार रहे हैं। जो लोग धर्म के नाम पर बड़ी-बड़ी तकरीरें करते हैं, उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर रमजान माह में रोजों के दौरान निर्दोष लोगों को मौत के घाट क्यों उतारा जा रहा है? रमजान के रोजों में जब बुराई देखना और सुनना ही बंद है तो फिर गोलियां क्यों चलाई जा रही है? क्या रमजान माह का उपयोग बातचीत के लिए नहीं हो सकता? आखिर आतंकवादी कश्मीर की कौनसी आजादी चाहते हैं? आज भारत में रहने वाला मुसलमान जितने सकून और आत्म सम्मान के साथ रह रहा है, उतना तो मुस्लिम देशों में भी नहीं है। कश्मीर में बहुत खून-खराबा हो चुका है। अब यह बंद होना चाहिए। इसके लिए यदि सरकार को भी दो कदम पीछे हटना पड़े तो हटना चाहिए। अलगाववादियों को भी संविधान के दायरे में रहकर संवाद करना चाहिए। अलगाववादी यह अच्छी तरह समझ लें कि कश्मीरियों का जो सम्मान भारत में हो सकता है, वह पाकिस्तान में कभी नहीं हो सकता। पाकिस्तान में तो आम मुसलमान भी सुरक्षित नहीं है।
(एस.पी.मित्तल) (18-06-17)
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