ख्वाजा साहब की दरगाह में देग पकाने पर हो सकता है संकट। जांच कमेटी ने चारों बावर्चियों की नियुक्ति को गलत माना। आज भी एक बावर्ची को मात्र 72 पैसे प्रतिमाह पारिश्रमिक मिलता है। ========

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ख्वाजा साहब की दरगाह में देग पकाने पर हो सकता है संकट। जांच कमेटी ने चारों बावर्चियों की नियुक्ति को गलत माना। आज भी एक बावर्ची को मात्र 72 पैसे प्रतिमाह पारिश्रमिक मिलता है।
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अजमेर स्थित विश्व विख्यात सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में पकने वाली देगों पर अब संकट खड़ा हो सकता है। देग पकाने का काम वंशानुगत तौर पर बावर्ची करते हैं। इन बावर्चियों को दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट 1955 में दरगाह कमेटी का कर्मचारी माना गया। यही वजह है कि दरगाह कमेटी के नाजिम ही बावर्ची परिवार के किसी एक सदस्य को कर्मचारी नियुक्त करते हंैं। वंशानुगत परंपरा के अनुरूप ही इस समय मुज्जफर भारती, मोहम्मद शब्बीर, हुसैन खान तथा अमीर मोहम्मद दरगाह में बावर्ची के तौर पर देग पकाने का काम करते हैं, लेकिन इन चारों बावर्चियों की नियुक्ति को लेकर जो शिकायतें प्राप्त हुई उसी के अंतर्गत दरगाह कमेटी के नाजिम आईबी पीरजादा ने एक तीन सदस्यीय जांच कमेटी का गठन किया। इस कमेटी में सहायक नाजिम डाॅ. मोहम्मद आदिल, विधि सलाहकार, जगदीश ओझा तथा लाइट प्रभारी मुगीस अहमद को शामिल किया गया। इस जांच कमेटी ने नाजिम को जो रिपोर्ट सौंपी है उसमें चारों बावर्चियों की नियुक्ति को गलत माना है। कहा गया है कि पूर्व में इन बावर्चियों के हक के दस्तावेजों की जांच सही प्रकार से नहीं की गई। दरगाह एक्ट में महिला और पुरुष में कोई भेदभाव नहीं है, लेकिन फिर भी बावर्चियों की नियुक्ति में महिलाओं के हक को नजर अंदाज किया गया। यदि दरगाह कमेटी इस जांच रिपोर्ट पर अमल करती है तो वर्तमान में कार्यरत बावर्चियों को अपने काम से हटना पड़ेगा। ऐसे में दरगाह में देग पकाने का संकट खड़ा हो सकता है। दरगाह की वर्षों पुरानी परंपराओं के अनुसार जो काम जो परिवार कर रहा है, वही करता रहेगा। यानि देग पकाने का कार्य दूसरे व्यक्ति नहीं कर सकते हैं। भले ही बावर्ची को छोटा समझा जाता हो, लेकिन ख्वाजा साहब की दरगाह में देग पकाना भी सम्मान की बात है। इसलिए कोई भी बावर्ची परिवार अपना हक आसानी के साथ नहीं छोड़ेगा। यदि दरगाह कमेटी ने इन वंशानुगत बावर्चियों के बजाए किसी दूसरे से देग पकवाने का काम किया तो दरगाह में हंगामा हो सकता है। यही वजह है कि दरगाह के नाजिम पीरजादा ने कहा है कि इस जांच रिपोर्ट पर विचार करने के बाद ही कोई फैसला लिया जाएगा। फैसला लेने से पहले दरगाह की परंपराओं का भी अध्ययन किया जाएगा, लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखा जाएगा कि बावर्ची परिवार का कोई सदस्य अपने हक से वंचित नहीं हो।
72 पैसे प्रति माह मिलता है परिश्रमिकः
दरगाह कमेटी को भले ही करोड़ों रुपए की राशि नजराने के तौर पर प्रतिमाह मिलती हो, लेकिन दरगाह कमेटी अपने इन बावर्चियों को कर्मचारियों के तौर पर मात्र 72 पैसे प्रतिमाह का परिश्रमिक देती है। इसके अलावा बड़ी देग को पकाने पर एक कर्मचारी को 50 रुपए दिए जाते हैं। छोटी देग के पकने पर 25 रुपए देय है। जबकि बड़ी देग में 4 हजार 800 तथा छोटी देग में 2 हजार 400 किलो चावल पकाए जाते हैं। इतनी बड़ी मात्रा में चावल पकाने के कार्य के मात्र 50 रुपए दिए जाते हैं। इसकी एवज में बावर्ची देग पकाने से लेकर सफाई तक का कार्य करते हैं। दरगाह की पंरपरा के अनुरूप देग पकवाने वाले मेहमान को 5 हजार रुपए का शुल्क जमा करवाना होता है। चावल व अन्य खाद्य सामग्री संबंधित मेहमान द्वारा ही लाई जाती है।
शुद्ध शाकाहारी है देगः
ख्वाजा साहब की दरगाह के आसपास खुले तौर पर मास की बिक्री होती है। लेकिन दरगाह के अंदर पकने वाली देग पूरी तरह शाहाकारी होती है। यहां तकि देग में चावल के साथ लहसुन, प्याज तक नहीं डाला जाता। चावल को स्वादिष्ट बनाने के लिए काजू, बादाम, जाफरान आदि सामग्री डाली जाती है। स्वादिष्ट चावल को तर्बरुख मान कर तकसीम (वितरण) किया जाता है। माना जाता है कि दरगाह में देग पकाने की परंपरा मुगल बादशाह अकबर के समय से चली आ रही है।
एस.पी.मित्तल) (12-11-17)
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