जावेद अख्तर का बयान राजपूत समाज को चिढ़ाने और अपमानित करने वाला है। अंग्रेजों ने मुगलों से ही छीनी थी हुकूमत और कई नवाब भी रहे गुलाम।
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जावेद अख्तर का बयान राजपूत समाज को चिढ़ाने और अपमानित करने वाला है। अंग्रेजों ने मुगलों से ही छीनी थी हुकूमत और कई नवाब भी रहे गुलाम।
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अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह नहीं कि आप किसी भी समाज के लिए कुछ भी बोल दें। 19 नवम्बर को एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में पूर्व सांसद और फिल्म लेखक जावेद अख्तर ने फिल्म पद्मावती को लेकर जो जहरीला बयान दिया है वह राजपूत समाज को चिढ़ाने और अपमानित करने वाला ही है। जावेद ने कहा कि जिन राजपूत घरानों ने अंगे्रजों की गुलामी स्वीकार की वे पद्मावती के लिए क्या लड़ेंगे? यदि हिम्मत होती तो ऐसे लोग अंग्रेजों से लड़ते? पद्मावती फिल्म के खिलाफ कौन आंदोलन चला रहा है, इसकी बात तो बाद में, लेकिन पहले जावेद को यह समझना चाहिए कि अंग्रेेजों ने भारत में हुकूमत किसी हिन्दू राजा से नहीं बल्कि मुगल शासकों से छीनी थी। जब मुगल शासकों ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेक दिए तो पहले से ही गुलाम घराने कैसे विरोध करते। फिर इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों से किस प्रकार हमारे क्रांतिकारियों ने लोहा लिया। यह सही है कि आजादी के आंदोलन में मुसलमानों का भी साथ मिला। लेकिन अब जावेद अख्तर जो एक तरफा जहरीला बयान दे रहे है वे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इससे जावेद की मानसिकता भी छलकती है। जावेद पहले भी ऐसे बयान दे चुके हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब वे किसी फिल्म की कहानी लिखते होंगे तो वह फिल्म कैसी होगी। शायद इसी मानसिकता के चलते जावेद फिल्म पद्मावती का समर्थन कर रहे हैं। जावेद को यह समझना चाहिए कि पद्मावती फिल्म के खिलाफ राजपूत घराने नहीं, बल्कि राजपूत समाज के साथ सर्व समाज शामिल हैं। इतना ही नहीं सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के दीवान और मुस्लिम धर्मगुरु जैनुल आबेदीन ने भी फिल्म पद्मावती का विरोध किया। दीवान आबेदीन ने भी मुसलमानों से भी विरोध करने की अपील की है। जब फिल्म का विरोध सर्वसमाज का रहा हो, तब सिर्फ राजपूत घरानों को लेकर पूरे आंदेालन को निशाना बनाना पूरी तरह गलत हैं। अच्छा होता कि जावेद अख्तर पहले आंदोलन की हकीकत समझ लेते। बल्कि राजस्थान में आम राजपूत के मन में यह पीड़ा है कि पूर्व राजघराने पूरी ताकत के साथ सहयोग नहीं कर रहे हैं। आज भी ऐसे घरानों को अपनी अकूत सम्पत्तियों की चिंता है। वैसे भी जब कभी कोई आंदोलन होता है तो गरीब और आम व्यक्ति ही ताकत दिखाता है। आवेद अख्तर और संजय लीला भंसाली जैसे निर्माता-निर्देशक यह अच्छी तरह समझ लें कि पद्मावती जैसी वीर और स्वाभिमानी महिला किसी फिल्म में मनोरंजन का पात्र नहीं हो सकती? जिस पद्मावती ने अलाउद्दीन खिलजी से अपनी इज्जत बचाने के लिए अग्निकुंड में कूद कर जान दे दी हो, उस बलिदानी महिला पर जावेद और भंसाली जैसे व्यक्तियों को तो बात करने तक का अधिकार नहीं है। कोई कल्पना कर सकता है कि चित्तौड की 16 हजार स्त्रियों के साथ जौहर हुआ हो। ऐसे बलिदान और वीरता का हर देशभक्त कायल है, लेकिन जावेद और भंसाली को तो अपने ही देश को बदनाम और लांछित करने में मजा आ रहा है। शर्मनाक बात तो यह है कि ऐसे लोग अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार बने हुए हैं।
एस.पी.मित्तल) (20-11-17)
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