महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट पर अवकाश के दिन रविवार को सुनवाई तो की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट जल्दबाजी में नहीं।
महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट पर अवकाश के दिन रविवार को सुनवाई तो की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट जल्दबाजी में नहीं। देवेन्द्र फडऩवीस और अजीत पवार का पक्ष सुनने के बाद ही होगा फैसला।
महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट पर 24 नवम्बर को रविवार के अवकाश के दिन सुनवाई तो हुई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट जल्दबाजी में नहीं है। अब इस मामले में 25 नवम्बर को प्रात: साढ़े दस बजे फिर सुनवाई होगी। 24 नवम्बर को प्रात: साढ़े ग्यारह बजे जब जस्टिस एनवी रमन्ना, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस संजीव खन्ना ने सुनवाई शुरू की तो सबसे पहले शिवसेना के वकील और राज्यसभा में कांग्रेस के सांसद कपिल सिब्बल ने क्षमा याचना की। सिब्बल ने रविवार को सुनवाई करवाने के लिए तीनों न्यायाधीशों से माफी मांगी। इस पर तीनों न्यायाधीशों ने कहा यह तो हमारा फर्ज है। इस मामले में एनसीपी की ओर से अभिषेक मनु सिंघवी ने पैरवी की। सिंघवी भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। सिंघवी और सिब्बल ने कोर्ट से आग्रह किया कि महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने 23 नवम्बर को देवेन्द्र फडऩवीस को भाजपा के मुख्यमंत्री को जो शपथ दिलाई गई है उसे निरस्त किया जाए और शिवसेना कांग्रेस तथा एनसीपी के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के आदेश दिए जाए। दोनों वकीलों ने यह भी कहा कि राज्यपाल की कार्यवाही पूरी तरह लोकतंत्र के साथ विश्वासघात है। राज्यपाल ने विधायकों के हस्ताक्षरों की सत्यता को जाने बगैर ही फडऩवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी। कोर्ट के समक्ष कर्नाटक का उदाहरण भी पेश किया गया। जब राज्यपाल ने बहुमत नहीं होते हुए भी येदुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी और विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए 19 दिन का समय दे दिया। तब सुप्रीम कोर्ट ने 24 घंटे में विधानसभा में बहुमत साबित करने के निर्देश दिए। इसलिए अब महाराष्ट्र के मामले में भी 24 घंटे में बहुमत साबित करने के आदेश दिए जाने चाहिए।
प्रतिवादियों का पक्ष जानना जरूरी:
सुप्रीम कोर्ट में भाजपा के कुछ विधायकों की ओर से वकील मुकुल रोहतगी ने पैरवी की। रोहतगी ने कहा कि शिवसेना और एनसीपी की याचिका में केन्द्र सरकार महाराष्ट्र सरकार देवेन्द्र फडऩवीस और अजीत पवार को पक्षकार बनाया गया है। ऐसे में इन चारों प्रतिवादियों का पक्ष सुने बगैर कोर्ट को कोई फैसला नहीं देना चाहिए। वैसे भी अनुच्छेद 361 में राज्यपाल किसी कोर्ट के प्रति जवाबदेय नहीं हंै और न ही राज्यपाल के निर्णयों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। राज्यपाल ने एनसीपी और शिवसेना को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, तब इन दोनों ही दलों के निर्धारित अवधि में सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया। राज्यपाल ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है जो संविधान के विरुद्ध हो। कोर्ट को अपना निर्णय देने में कोई जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। सुनवाई के दौरान भारत सरकार के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता भी कोर्ट में उपस्थित थे। इस पर न्यायाधीश रमन्ना ने जानना चाहा कि सॉलिसीटर जनरल किस पक्ष की पैरवी करने आए हैं? इस पर तुषार मेहता ने कहा कि मुझे अभी तक भी कोई निर्देश नहीं मिले हैं। याचिका दायर होने के मद्देनजर मैं स्वयं ही आ गया हंू। सभी पक्षों के तर्क सुनने के बाद कोर्ट ने कहा कि इस मामले में 25 नवम्बर को फिर सुनवाई होगी। इसके साथ ही कोर्ट ने केन्द्र, राज्य सरकार, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस तथा उपमुख्यमंत्री अजीत पवार को भी नोटिस जारी किए। साथ ही सॉलिसीटर जनरल को निर्देश दिए कि 23 नवम्बर को जिन दस्तावेजों के आधार पर राज्यपल ने शपथ दिलवाई है वे सभी कोर्ट में प्रस्तुत किए जाएं।
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