ख्वाजा साहब की दरगाह का उपयोग विवाद के लिए नहीं होना चाहिए। खादिम समुदाय खुद मानता है कि दरगाह में मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू आते हैं, लेकिन फिर भी अजमेर के हिन्दू दुकानदारों पर प्रतिकूल टिप्पणी।

26 जून को अजमेर में सनातन संस्कृति की रक्षार्थ निकले शांति मार्च पर सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह से तीखी प्रतिक्रिया दी गई। शांति मार्च को गैर जरूरी बताते हुए दरगाह बाजार के बंद रहने पर हिन्दू व्यापारियों को लेकर प्रतिकूल बातें कहीं गई। शांति मार्च के निकलने के बाद दरगाह के मुख्य द्वार पर खड़े होकर खादिम समुदाय के एक प्रतिनिधि ने जो संबोधन दिया, उसका वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल किया गया। मुस्लिम प्रतिनिधि होने के नाते अपनी बात कहने का पूरा हक है। वे सार्वजनिक तौर पर शांति मार्च की अनुमति देने के लिए कांग्रेस सरकार और प्रशासन की आलोचना भी कर सकते हैं। लेकिन अच्छा हो कि ऐसे विवादों से ख्वाजा साहब की दरगाह का उपयोग नहीं हो। खादिम समुदाय के प्रतिनिधि का बयान इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि दरगाह के खादिमों की प्रतिनिधि संस्था अंजुमन सैयद जादगान के पदाधिकारी भी घोषित है यानी खादिमों समुदाय के प्रतिनिधि भी हैं। सब जानते हैं कि दरगाह में मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू समुदाय के लोग जियारत के लिए आते हैं। पिछले दिनों जब एक हिन्दूवादी संगठन ने दिल्ली में बैठकर ख्वाजा साहब की दरगाह में धार्मिक चिन्हों की बात कही तो अजमेर में हिन्दू समुदाय का समर्थन नहीं मिला। उल्टे हिन्दू प्रतिनिधियों ने ऐसे दावों को खारिज कर दिया। इसके पीछे यही उद्देश्य था कि अजमेर में सौहार्द का माहौल बना रहे। तब अंजुमन के निवर्तमान अध्यक्ष मोइन सरकार ने एक बयान जारी कर कहा कि दरगाह में 70 प्रतिशत लोग हिन्दू समुदाय के आते हैं, जहां तक शांति मार्च के लिए दोपहर 12 बजे तक बाजार बंद करने का सवाल है तो 17 मार्च को जब मुस्लिम समुदाय ने मौन जुलूस निकाला था, तब भी दरगाह के आसपास के दुकानदारों ने अपनी दुकानें बंद रखी थी। तब किसी ने भी दुकानें बंद करने पर ऐतराज नहीं जताया। दरगाह में हिन्दू समुदाय के लोग जियारत के लिए आते हैं, उन्हें खादिम ही जियारत करवाते हैं। जियारत की रस्म में कोई खादिम भेदभाव नहीं करता है। हिन्दू जायरीन के लिए भी खुशहाली और सफलता के लिए दरगाह में दुआ की जाती है। सूफी परंपरा के अनुरूप हिन्दू समुदाय के लोग जियारत के बाद अपने खादिम का हाथ भी चूमते हैं। यही वजह है कि ख्वाजा साहब की दरगाह को देश में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में कौमी एकता का प्रतीक माना जाता है। देश का माहौल चाहे कैसा भी हो,लेकिन दरगाह की वजह से अजमेर का माहौल आमतौर पर सुकून भरा होता है। दरगाह के मुख्यद्वार की सीढिय़ों पर खड़े होकर ही सालाना उर्स में देश के प्रधानमंत्री से लेकर तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं के संदेश पढ़े जाते हैं। यदि ऐसे स्थान का उपयोग खादिम समुदय के कुछ प्रतिनिधि विवादों के लिए करेंगे तो यह सौहार्द के लिए अच्छा नहीं होगा। ख्वाजा साहब की दरगाह से तो हमेशा भाई चारे और साम्प्रदायिक सौहार्द का संदेश जाना चाहिए, क्योंकि दरगाह से सिर्फ मुसलमानों की ही नहीं बल्कि हिन्दुओं की भी आस्था जुड़ी है। यदि दरगाह से व्यापारियों को धमकाने के अंदाज में बातें कहीं जाएंगी तो फिर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। अजमेर में सुकून कायम रहे इसी जिम्मेदार अब खादिम समुदाय के प्रतिनिधियों की भी है। दरगाह की धार्मिक रस्मों में खादिम समुदाय की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह सही है कि खादिम समुदाय के प्रतिनिधि ने अपने समुदाय के पक्ष को प्रभावी तरीके से सोशल मीडिया पर रखते रहे हैं। उन्होंने सरकार की आलोचना करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन अब ऐसे में उनके बयान बहुत मायने रखते हैं। जहां तक प्रशासन द्वारा शांति मार्च को अनुमति देने का सवाल है तो मार्च को ख्वाजा साहब की दरगाह के सामने से निकलने की अनुमति नहीं दी गई। प्रशासन की सबसे बड़ी सफलता है। जिला कलेक्टर अंशदीप और पुलिस अधीक्षक विकास शर्मा ने अपनी सूझबूझ से मुस्लिम समुदाय का मौन जुलूस भी निकलवाया तो हिन्दू समुदाय का शांति मार्च भी। दोनों ही अवसरों पर अजमेर में शांति रही। अजमेर के लिए यह संतोष और गर्व की बात है कि जब चेटीचंड, महावीर जयंती आदि धार्मिक जुलूस निकलते हैं, तब दरगाह के बाहर खादिमों की ओर से ही पुष्प वर्षा की जाती है। इसी प्रकार जब खादिम समुदाय की ओर से सरवाड़ शरीफ का जुलूस निकाला जाता है तो दरगाह से मदार गेट तक हिन्दू व्यापारी जुलूस पर पुष्प वर्षा करते हैं। ख्वाजा साहब की दरगाह की वजह से दोनों पक्षों के आर्थिक हित भी जुड़े हैं। अजमेर में सौहार्द बना रहे, यह सभी की जिम्मेदारी है। 

S.P.MITTAL BLOGGER (27-06-2022)
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