मोदी विरोध के चक्कर में देश को नुकसान पहुंचाने वाला विरोध हो रहा है। किसान आंदोलन की आड़ में खालिस्तान समर्थक ही नहीं बल्कि चीन और पाकिस्तान समर्थक तत्व भी सक्रिय। देश के अंदर चुनाव और देश के बाहर सीमा पर मात खाने वाले अब एकजुट हो रहे हैं।
देश की राजधानी दिल्ली के चारों तरफ 15 दिसम्बर को भी किसान आंदोलन की गूंज रही। कोई 20 दिनों से दिल्ली में प्रवेश करने वाले सभी मार्गों को जाम कर रखा है। इससे लाखों लोगों को परेशानी हो रही है। कहा जा रहा है कि यह किसानों का आंदोलन है, लेकिन आंदोलन की अब तक की गतिविधियों को देखकर लगता है कि यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध तक सीमित हो गया है। आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों की जिद है जो जिस कृषि कानून को संसद में मंज़ूर किया गया है उसे रद्द किया जाए। ऐसे जिद्दी लोग कानून में संशोधन भी नहीं चाहते हैं और न ही सरकार के प्रस्तावों पर बात करने को तैयार हैं। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार एक चुनी हुई सरकार है। इस सरकार को बहुमत भी हासिल है। यदि किसी को सरकार का फैसला पसंद नहीं आया है तो उसे अगले चुनाव का इंतजार करना चाहिए, लेकिन जो लोग देश के अंदर मोदी से हार गए, वे अब किसान आंदोलन में सक्रिय हैं। गंभीर बात तो यह है कि देश के बाहर सीमाओं पर मात खाने वाले तत्व भी किसान आंदोलन में सक्रिय हो गए हैं। सब जानते हैं कि जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा कर भारत ने पाकिस्तान को करारा जवाब दिया है। इस अनुच्छेद के रहते ही पाकिस्तान ने हमारे कश्मीर को आतंक का गढ़ बना रखा था। यह नरेन्द्र मोदी की ही रणनीति थी कि कश्मीर मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर नहीं आने दिया। यहां तक कि पाकिस्तान को मुस्लिम देशों के समूह का भी समर्थन नहीं मिला। इसी प्रकार लद्दाख सीमा पर जब चीन ने ताकत दिखाई तो भारत ने अपनी सैन्य शक्ति भी दिखा दी। आजादी के बाद यह पहला अवसर रहा, जब हमारे सैनिक चीन के सामने सीनातानकर खड़े हो गए। चीन को जिस तरह सबक सिखाया उसके बारे में सब जानते हैं। लेकिन अब किसान आंदोलन में चीन समर्थक नक्सली और माओवादी भी सक्रिय हैं। इसी प्रकार जिन लोगों ने दिल्ली में जेएनयू के परिसर में देश विरोधी नारे लगाए वो भी सक्रिय बताए जा रहे हैं, इसलिए ऐसे लोगों के पोस्टर भी प्रदर्शन स्थल पर लगे हुए हैं। कहा जा रहा है कि यह किसानों का आंदोलन है, लेकिन देश विरोधी गतिविधियों में शामिल लोगों को रिहा करने की मांग खुले आम की जा रही है। ऐसा नहीं कि आंदोलन में किसान शामिल नहीं है, लेकिन आंदोलन मोदी और देश विरोधी तत्व भी सक्रिय हैं। ऐसे तत्वों की सक्रियता की वजह से ही आंदोलन मजबूती के साथ चल रहा है। इस आंदोलन में खालिस्तान समर्थकों की भागीदारी लगातार देखी जा रही है। अमरीका के वाशिंगटन में तो महत्मा गांधी की प्रतिमा पर खालिस्तान का झंडा तक लगा दिया। जबकि खालिस्तान आंदोलन से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सख्ती से निपटा था। यहां तक कि श्रीमती इंदिरा गांधी को अपनी जान भी देनी पड़ी। किसान आंदोलन में खालिस्तान समर्थक भी सक्रिय हैं, इसके बाद भी कांग्रेस का समर्थन जारी है। देखा जाए तो दिल्ली के बाहर सबसे ज्यादा लोग पंजाब के ही है और पंजाब में ही कांग्रेस की सरकार है। जहां तक कृषि कानूनों का सवाल है तो सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि इससे किसानो को कोई नुकसान नहीं होगा। कृषि के विशेषज्ञ भी जानते हैं कि नया कानून किसानों में खुशहाली लाएगा, लेकिन जिन राजनीतिक दलों के नेता किसान और उपभोक्ता के बीच दलाल बन कर करोड़ों रुपया कमा रहे हैं वे इस कानूनों का किसान के खिलाफ बता रहे हैं। चूंकि आंदोलन में धनाढ्य दलालों की भी भूमिका है, इसलिए आंदोलन स्थल पर सभी सुख सुविधाएं सुनियोजित तरीके से उपलब्ध करवाई जा रही है। इसे सरकार की संवेदनशीलता ही कहा जाएगा कि अभी तक कोई सख्त कदम नहीं उठाया गया है।
S.P.MITTAL BLOGGER (15-12-2020)
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