तो क्या समलैंगिकता को सही अर्थों में नहीं समझा जा रहा?
=====
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 377 पर सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया, उस पर मैंने भी 6 सितम्बर को ही ब्लाॅग लिखा था। ब्लाॅग को पढ़ने के बाद मेरे पास राजस्थान की एक प्रमुख कवियत्री का फोन आया और उन्होंने मुझे ब्लाॅग को वापस लेने की मांग की। कवियत्री का कहना रहा कि मीडियाकर्मी समलैंगिकता को सही अर्थों में नहीं समझ रहे हैं, इसलिए संस्कृति और सामाजिक सरोकारों की दुहाई देकर आलोचना कर रहे हैं। समलैंगिकता का मतलब यह नहीं कि दो बालिग लड़के और लड़कियां एक साथ रहें। जब ऐसे जोडे़ एक साथ रहते हैं तो लगता तो यही है कि प्रकृति के विपरीत दो व्यक्ति रह रहे हैं, जबकि ऐसा सही नहीं है। दो लड़के जब पति-पत्नी की तरह एक कमरे में रहते है। तो हमें ऐसे जोड़े की सच्चाई का पता लगाना चाहिए। असल में होता यह है कि लड़के के शरीर में लड़की के हार्मोन आ जाते हैं। इसी प्रकार लड़की के शरीर में लड़के के हार्मोन। स्वाभाविक है कि ऐसे बच्चे विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षित नहीं होंगे। हमें ऐसे बच्चों की पीड़ा को समझना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे समलैंगिक युवाओं की पीड़ा को समझा है इसलिए अनुच्छेद 377 के प्रावधानों को रद्द किया है। कवियत्री का कहना रहा कि ऐसे युवा तो पहले से ही ईश्वरीय ज्यादती के शिकार हैं और यदि समाज में भी घृणा से देखा गया तो फिर उनके सामने आत्महत्या करने के सिवाए कोई रास्ता नहीं बचेगा। यह माना कि मनुष्य शरीर के विपरीत हार्मोन बहुत कम बच्चों में होते हैं, लेकिन जब हम समान अधिकार की बात करते हैं तो हमें दो-चार ऐसे लोगों के सम्मान का भी ख्याल रखना चाहिए जो स्वास्थ्य वयस्क प्रकृति के विपरीत आचरण करते हैं, उनके विरुद्ध तो कानून के अनुरूप कार्यवाही होनी ही चाहिए। लेकिन जो स्वयं ईश्वरीय ज्यादती के शिकार हैं उनके प्रति समाज की भी सहानुभूति होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मनुष्य शरीर के हार्मोन से जोड़ कर देखा जाए। हमें उन युवाओं के साथ खडे़ होना चाहिए जो शारीरिक पीड़ा झेल रहे हैं।