प्रेस काउंसिल ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को नोटिस दिया।
प्रेस काउंसिल ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को नोटिस दिया।
अखबारों को सरकारी विज्ञापन देने या नहीं देने को लेकर दिया था बयान।
राष्ट्रदूत जैसे आलोचक अखबारों के विज्ञापन बंद कर रखे हैं।
भाजपा के शासन में राजस्थान पत्रिका के साथ भी ऐसा ही सलूक किया था।
अखबरों को राजस्थान सरकार के विज्ञापन देने या नहीं देने को लेकर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 16 दिसम्बर को जो बयान दिया, उसको लेकर अब प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने नोटिस जारी किया है। प्रदेश के मुख्य सचिव को भेजे नोटिस में दो सप्ताह में मुख्यमंत्री के बयान पर स्पष्टीकरण मांगा गया है। आमतौर पर प्रेस काउंसिल अखबार मालिकों एवं सम्पादकों को नोटिस जारी कर संबंधित खबरों पर जवाब तलब करती है, लेकिन इस बार काउंसिल सरकारी विज्ञापनों के संबंध मे मुख्यमंत्री को नोटिस जारी किया है। मुख्यमंत्री गहलोत को जारी नोटिस को लेकर अब पत्रकार जगत और राजनीति के क्षेत्र में चर्चा हो रही है। सीएम गहलोत भले ही अखबरों की भूमिका को लेकर नाराजगी जताएं, लेकिन इसे सरकारी विज्ञापनों का असर ही कहा जाएगा कि प्रेस काउंसिल के नोटिस की खबर राजस्थान के प्रमुख अखबारों में नहीं छपी है। नोटिस की खबर 15 जनवरी के अंक में प्रदेश के सबसे पुराने अखबार राष्ट्रदूत में प्रमुखता के साथ छपी है। राष्ट्रदूत में भी यह खबर इसलिए प्रकाशित हुई है कि अघोषित तौर पर राजस्थान सरकार के विज्ञापन राष्ट्रदूत को नहीं दिए जा रहे। मुख्यमंत्री के समर्थकों का कहना है कि कांगे्रस की राजनीति में राष्ट्रदूत अखबार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और डिप्टी सीएम सचिन पायलट का समर्थन करता है। राष्ट्रदूत में आए दिन मुख्यमंत्री गहलोत के विरोध में खबरें छपती है। इस नीति से राष्ट्रदूत को हाल ही में भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। गहलोत सरकार के एक वर्ष पूरा होने पर दिसम्बर में राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक नवज्योति सहित अन्य समाचार पत्रों को पूरे पूरे पृष्ठ के रंगीन विज्ञापन दिए, लेकिन सरकार की एक वर्ष की उपलब्धियों वाला एक भी विज्ञापन राष्ट्रदूत को नहीं मिला। जबकि राष्ट्रदूत भी पत्रिका और भास्कर की तरह विज्ञापन प्राप्त करने का हकदार है। सवाल उठता है कि पात्रता होने के बाद भी किसके इशारे पर राष्ट्रदूत के विज्ञापनों पर रोक लगाई गई है? राष्ट्रदूत के विज्ञापनों को लेकर डिप्टी सीएम सचिन पायलट ने भी आवाज उठाई थी, लेकिन गहलोत सरकार में पायलट की कोई सुनवाई नहीं हुई।
गालियां भी सुने और विज्ञापन भी दें:
16 दिसम्बर को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सीएम गहलोत ने कहा था कि हम गालियां भी सुने और सरकारी विज्ञापन भी दें, ऐसा अब नहीं होगा। हम अखबारों की निगरानी करवा रहे हैं। देखेंगे कि सरकार को लेकर कैसी खबरें छपती है। हम करोड़ों रुपए के विज्ञापन देते हैं, लेकिन सरकार की एक खबर छपवाने के लिए हमारे मंत्री को गिड़गिडऩा पड़ता है। सीएम के इस कथन के बाद जनसम्पर्क निदेशालय में अखबारों की निगरानी का काम शुरू हो गया है। यही वजह है कि वर्ष 2020 के लिए विज्ञापन दरों का नवीनीकरण नहीं किया जा रहा है। सरकार का कहना है कि हम पहले अखबारों की समीक्षा करवाएंगे। जाहिर है कि राष्ट्रदूत जैसे आलोचक अखबारों को जांच के नाम पर तंग किया जाएगा। जिन अखबारों की विज्ञापन दर केन्द्र सरकार से स्वीकृत है, उन्हें भी निगरानी के दायरे में शामिल किया जा रहा है।
भाजपा शासन में पत्रिका पर शिकंजा:
गत भाजपा शासन में राजस्थान पत्रिका के सरकारी विज्ञापनों पर अघोषित रोक लगाई थी। तब पत्रिका तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की नाराजगी का शिकार हुआ था। तब पत्रिका ने अपने अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर पत्रिका प्रबंधन ने राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाया था। राजे सरकार जब प्रेस पर अंकुश लगाने वाला कानून लाई, तब पत्रिका ने वसुंधरा राजे की खबरों का ही बहिष्कार कर दिया। हालांकि तब अन्य अखबारों और पत्रकारों ने भी काले कानून का विरोध किया था। वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री रहते हुए जो रवैया अपनाया उसी का परिणाम रहा कि राजस्थान में भाजपा को हार कार सामना करना पड़ा। अब अशोक गहलोत को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 200 में से मात्र 21 सीटें मिली थी। तब गहलोत ही पांच वर्ष तक मुख्यमंत्री थे। राजस्थान से कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने के बाद ही सचिन पायलट को प्रदेश कांगे्रस का अध्यक्ष बनाया गया था। पायलट ने ही भाजपा के शासन में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ संघर्ष किया। इसी का परिणाम रहा कि कांगे्रस फिर से सत्ता में लौटी। गहलोत के मुख्यमंत्री रहते हुए ही पांच माह पहले लोकसभा की सभी 25 सीटों पर कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है। यहां तक कि गहलोत अपने पुत्र वैभव गहलोत को भी गृह जिले जोधपुर से चुनाव नहीं जीतवा सके। लोकतंत्र में सत्ता को आती जाती रहती है, लेकिन सत्ता में बैठे लोगों को घमंड नहीं करना चाहिए। सरकारी विज्ञापनों का भुगतान जनता के टैक्स से होता है। लोकतंत्र में माईबाप मुख्यमंत्री या मंत्री नहीं बल्कि जनता होती है।
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