अजमेर के बहुचर्चित ब्लैकमेल कांड पर बनी फिल्म अजमेर-92 को लेकर अजमेर में सतर्कता और सावधानी बरतने की जरुरत, क्योंकि यहां ख्वाजा साहब की दरगाह है। अजमेर की छवि का भी ख्याल रखा जाए, क्योंकि 30 वर्ष पहले अजमेर की भी बदनामी हुई थी।
अजमेर के बहुचर्चित फोटो ब्लैकमेल कांड पर बनी फिल्म अजमेर 92 आगामी 25 जुलाई को रिलीज होगी, लेकिन फिल्म को लेकर टीवी चैनलों पर बहस शुरू हो गई हे। 6 जून को सायं पांच बजे फर्स्ट इंडिया और सायं छह बजे राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल भारत 24 पर फिल्म को लेकर लाइव बहस हुई। इन दोनों चैनलों के प्रोग्राम में पत्रकार के तौर पर मैंने भाग लिया, जबकि अदालत में बचाव पक्ष के वकील इकबाल चिश्ती के साथ साथ कांग्रेस, भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद के प्रतिनिधि उपस्थित रहे। टीवी पर जब बहस होती है तो माहोल अक्सर गर्म हो जाता है। यह सही है कि 1991-92 में जब यह आपराधिक मामला उजागर हुआ, तब युवक कांग्रेस के शहर अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी गिरफ्तार हुए। कई आरोपियों को सजा भी हुई। गंभीर बात यह रही कि अधिकांश आरोपी ख्वाजा साहब की दरगाह के खादिम परिवारों से जुड़े थे। आरोप है कि आरोपियों ने पहले स्कूल कॉलेज की छात्राओं को अपने प्रेम जाल में फंसाया और फिर अश्लील फोटो खींचकर ब्लैकमेल किया। पुलिस ने इस मामले में अदालत में सबूत भी पेश किए और सबूतों के आधार पर आरोपियों को सजा भी हुई। अभी भी यह मामला अजमेर की पॉक्सो कोर्ट में चल रहा है। चूंकि कई प्रभावशाली आरोपी देश से भागने में सफल हो गए थे, इसलिए सभी आरोपियों के विरुद्ध एक साथ चार्जशीट पेश नहीं की जा सकती। बाद में जिन आरोपियों को पकड़ा गया, उन पर अब मुकदमा चल रहा है। एक आरोपी अलपास महाराज तो अभी भी फरार हैं, इसके विरुद्ध रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी हो रखा है, लेकिन अभी भी अलपास की लोकेशन ट्रेस नहीं हो रही है। अदालत में आरोपियों की ओर से मुकदमा लड़ने वाले वकील इकबाल चिश्ती का कहना है कि इस आपराधिक प्रकरण पर फिल्म नहीं बननी चाहिए, क्योंकि अभी यह मामला अदालत में विचाराधीन है। इकबाल चिश्ती का यह भी कहना है कि इस मामले में 16 लड़कियों ने शिकायत दर्ज करवाई थी, लेकिन सभी लड़कियां अदालत में अपने बयानों से मुकर गईं। चिश्ती का कहना रहा कि इस प्रकरण को अजमेर स्थित ख्वाजा साहब की दरगाह से भी नहीं जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। कुछ लोग फिल्म की आड़ में साम्प्रदायिक फसाद करवाना चाहते हैं। कथित रूप से जो घटना 30 बरस पहले हुई, उस पर अब फिल्म बनाना, उचित नहीं है। टीवी पर बसह में जहां भाजपा के प्रतिनिधियों ने कांग्रेस को घेरने का काम किया, वहीं कांग्रेस के प्रतिनिधियों का कहना रहा कि 1991 में जब यह कांड हुआ, तब राजस्थान में भैरोसिंह शेखावत के नेतृत्व में भाजपा की सरकार चल रही थी। स्वाभाविक है कि भाजपा और कांग्रेस के नेता अब इस फिल्म पर अपने अपने नजरिए से प्रतिक्रिया देंगे, लेकिन फिल्म को लेकर अजमेर में सतर्कता और सावधानी बरतने की जरूरत है, क्योंकि अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह है। आमतौर पर यह दोनों ही वर्गों के लोग शांतिपूर्ण तरीके से रहते हैं। दरगाह के खादिमों से भी हिन्दू दुकानदारों के संबंध अच्छे हैं। ऐसे सौहार्दपूर्ण माहौल को देखते हुए बाहरी संस्थाओं को अजमेर में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। 6 जून को मुंबई की एक मुस्लिम संस्था के पदाधिकारियों ने अजमेर आकर प्रशासन ज्ञापन दिया और फिल्म अजमेर 92 पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। यदि बाहरी संस्थाओं के अजमेर आने का सिलसिला बढ़ता है तो माहौल बिगडेगा ही। फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग वाला ज्ञापन मुंबई दिल्ली में सेंसर बोर्ड के अधिकारियों को दिया जाता तो ज्यादा प्रभावी होता। यदि अजमेर में तनाव होता है तो यहां आने वाले जायरीन पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। 1991-92 में जब यह कांड उजागर हुआ, तब भी अजमेर की बहुत बदनामी हुई थी। हो सकता है कि तब अजमेर में कुछ लड़कियां की संदिग्ध मौत भी हुई हो। सबसे खास बात यह है कि इस कांड में शामिल आरोपियों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। चाहे आरोपी किसी भी जाति धर्म का हो। अजमेर में शांति बनी रहे यह सभी के प्रयास होने चाहिए।
S.P.MITTAL BLOGGER (07-06-2023)
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