मदरसा हमारा दिन है पहले आलिम बनना जरूरी है दारुल उलूम। तो फिर भारत में संविधान और धर्मनिरपेक्षता का क्या होगा? देशभर में अंग्रेजी स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाली मुस्लिम छात्राएं क्या करेंगी?

मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था और धार्मिक मामलों में दखल रखने वाली दारुल उलूम के सरदार व जमीयत उलेमा ए हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा है कि छात्रों को पहले आलिम बनने पर ध्यान देना चाहिए। डॉक्टर इंजीनियर या वकील बनने के बारे में बाद में सोचें। मदरसा हमारा दीन है, दुनिया नहीं, इसलिए पहले अच्छे आलिम ए दीन बने। मदनी के इस बयान के साथ ही इस्लामिक शिक्षा के केंद्र देवबंद स्थित दारुल उलूम ने अपने छात्रों को अंग्रेजी और दूसरी भाषाएं  पढ़ने  पर प्रतिबंध लगा दिया है। जारी फतवे में कहा गया है कि छात्र इस नियम का पालन नहीं करेंगे तो उन्हें संस्था से बाहर कर दिया जाएगा। यदि कोई छात्र चोरी छिपे दूसरी भाषा पढ़ता पाया गया तो उसका दाखिला रद्द कर दिया जाएगा। मुस्लिम छात्र मदरसों में किस तरह शिक्षा ग्रहण करें उनका विशेषाधिकार है, लेकिन सवाल उठता है कि यदि मदरसा ही पहली और बड़ी प्राथमिकता है तो फिर भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का क्या होगा? भारत में अपना संविधान है जिसकी पालना देश के हर नागरिक को करना चाहिए। संविधान के मुताबिक तो देश का कोई भी नागरिक किसी भी भाषा को सीख और पढ़ सकता है। अब यदि दारुल उलूम जैसी संस्थान सिर्फ  एक ही भाषा को पढ़ने के लिए बाध्य करेंगे तो फिर संविधान का क्या होगा? सवाल संविधान और धर्मनिरपेक्षता का भी नहीं है। सवाल यह भी है कि देश में मुस्लिम युवक की नहीं बल्कि बालिकाएं भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल कॉलेजों में पढ़ रही है। क्या ऐसी मुस्लिम बालिकाएं अपने दीन के खिलाफ काम कर रही है। आज मुस्लिम बालिका उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने के बाद सरकारी नौकरियां भी कर रही है। ऐसे अनेक मुस्लिम परिवार है जिनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में नर्सरी से ही पढ़ाई कर रहे है। मुस्लिम बालिकाएं अंग्रेजी खासकर ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित कान्वेंट स्कूलों में वही के नियमों और ड्रेस कोड की पालना करती है। क्या दारुल उलूम ऐसी मुस्लिम छात्राओं के लिए भी कोई फतवा जारी करेगा? आज जब दुनिया भर में भारत के युवा अपनी योग्यता को प्रदर्शित कर रहे हैं तब दारुल उलूम फतवा कितना मायने रखता है, यह मुसलमानों के लिए सोचने का विषय है। यह माना कि धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के कारण ही भारत में हर नागरिक अपने धर्म के आचरण कर सकता है, लेकिन सवाल देश के युवाओं के लिए शिक्षा ग्रहण करने का भी है। क्या सिर्फ  मदरसों की शिक्षा से कोई युवा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी योग्यता दिखा सकता है। यह सही है कि धर्म हमें एक अच्छा इंसान बनने की शिक्षा देता है। धर्म का आचरण से एक इंसान बन सकते हैं लेकिन हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिसके माध्यम से योग्यता हो सके। 

S.P.MITTAL BLOGGER (16-06-2023)

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