हनुमान बेनीवाल की टिप्पणी का चारण विद्वान गिरधर दान रत्नू ने सटीक जवाब दिया है।

राजस्थान के नागौर से आरएलपी के सांसद हनुमान बेनीवाल ने राजस्थान की रियासतों को लेकर जो गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी की उस पर मैंने 20 मई को ब्लॉक संख्या ।। हजार 607 लिखा था। मेरे इस ब्लॉग पर प्रदेश भर से प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई। कुछ साहित्यकारों ने राजपूतों के इतिहास के बारे में जानकारी दी। कुछ ने राजस्थान के संघर्ष में राजपूत. रियासतों के योगदान के बारे में लिखा मुझे बीकानेर के चारण विद्वान गिरधर दान रत्नू द्वारा लिखा गया एक लेख भी प्राप्त हुआ। मुझे लगता है कि चारण विद्वान रत्नू ने हनुमान बेनीवाल की टिप्पणी का सटीक जवाब दिया है। मैं यहां गिरधर दान रत्नू के लिखे को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा है। मैं यहां यह भी बताना चाहता हूं कि साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए रत्न को आगामी 8 जून को अजमेर स्थित चारण शोध संस्थान में सम्मानित किया जाएगा रत्नू को डॉ. शक्तिदान कविया पुरस्कार दिया जा रहा है। इस बारे में और अधिक जानकारी मोबाईल नम्बर 9982032642 पर विद्वान गिरधर दान रत्नू से ली जा सकती है।
मित्रों !
जय माताजी री।
देवकरण जी इंदोकली लिखते हैं कि राजपूत हमेशा से भारत के रक्षक रहें हैं‌, क्योंकि यह रणबांकुरे हैं‌‌।समरांगण में कभी शंकित नहीं हुए‌‌।एकाध युद्ध नहीं अपितु हजारों वार शत्रुओं से लड़ें हैं‌।सिर पड़ने पर भी लड़ते रहें हैं।यही कारण है इन वीर क्षत्रियों से  भारत की जनता  उपकृत हुई है‌।ऐसे में अगर कोई  क्षत्रियों की निंदा करता है तो उसे धिक्कारना चाहिए।धिक्कारने से नहीं मानता है तो ऐसे लोगों  के मुख पर तमाचा मारना चाहिए–
राजपूत रखवाऴ ,वीर भारत रा बंका।
भड़ पड़िया रणभोम,समर नह लाया संका।
सिर पड़ियां समसेर,वजाई कई वारां।
वीरां रा कई बार,हुवा उपकार हजारां।
क्षत्रियां तणी निंदा करै (ज्यांनै)धिक धिक कह धिक्कारणो।
देखजो फरज सब देश रो,(ज्यांरै)मुख पर रेपट मारणो।।
मित्रों!कविवर का आशय तो तमाचा मारने से ही है लेकिन मैं आपसे ऐसा घिनौना आव्हान नहीं कर सकता।मेरा तमाचा मारना का मतलब सोट से नहीं वोट से हैं।वोट देते समय आप ऐसे लोगों की हरकतों, धूर्तताओं व घृणा को भूल जाते हैं।
लेकिन क्षमा करना मैं आपकी टिप्पणियों से भी विनम्रता के साथ असहमत हूं। क्योंकि 
राजस्थानी का एक दोहा है । जिसमें कवि लिखता है कि विद्वान ,मूर्ख के पास धन देखकर अपनी विद्वत्ता त्यागकर मूर्ख सा  आचरण  नहीं कर सकता।उसी प्रकार वेश्या के पास आभूषण देखकर शीलवान स्त्री आभूषण प्राप्ति के लिए अपने चरित्र के चिथड़े नहीं उड़ा सकती–
पंडित विद्या न परहरै,मूरख धन अवरेख।
सुलटा तजै न शीलता,कुलटा भूषण देख।।
अतः मित्रों अभी सोशल मीडिया पर हमारे राजस्थान के माननीय एक सांसद की ओछी व विकृत मानसिकता का प्रत्युत्तर कुछ मित्र उसी प्रकार दे रहें हैं।
वे अपनी कुल परंपरा, संस्कार व संस्कृति कैसे भूल रहें हैं?यह मेरी समझ से बाहर है।भाषायी दरिद्रता पर अगर क्षत्रिय उतर आएंगे तो पीछे कुछ बचेगा ही नहीं। 
एक व्यक्ति की मानसिकता के लिए पूरा समाज उत्तरदायी नहीं हो सकता ।समाज को इंगित कर लिखने का मतलब है आप इन महाशय के खोदे गए खंडे में विवेकशून्य होकर गिर रहें हैं।आपके पूर्वजों ने एक व्यक्ति की ग़लती शायद ही  किसी पूरी जाति पर थोपी हो!अगर वे ऐसा करते तो सभी जातियां सदियों तक समर्पित भाव से उनके साथ नहीं रहती ।
अतः अभिव्यक्ति की शक्ति का ऐसा रूप न दिखाएं कि उनमें और आपमें भेद की रेखा ही समाप्त हो जाए।
वैसे आप लिखने के लिए स्वतंत्र हैं,मेरा तो केवल आत्मिक लगाव के कारण मीठा उलाहना है।शायद अब आपमें उसे झेलने की शक्ति ईश्वर ने शेष रखी है अथवा नहीं। संकोचवश कुछ कह नहीं सकता।
परंतु आपने कभी सोचा है कि किसी कुपात्र के सीता को सत्यहीन कहने से,लक्ष्मण को जती न मानने से,भीम को महाभारत का भगौड़ा कहने से व हनुमान के लिए यह कह देना कि उन्होंने लंका का विध्वंस नहीं किया।तो क्या यह एक कुपात्र के कहने मात्र से जनमानस मान लेगा-
कहियो किणी कुपात सीता कूं सील असती।
कहियो किणी कुपात,जती लिछमण नह जती।
कहियो किणी कुपात,भीम भारथ में भग्गो।
कहियो किणी कुपात,लंक गढ़ हणूं न लग्गो।
उसी प्रकार मेरा भी निवेदन है कि एक बोल बिगाड़े के कहने से क्षत्रिय कातर कहलाने लग जाएंगे?आपका आत्मविश्वास एक आदमी के गरल उगलने से डगमगाने लग गया‌।आप सदियों से धारित संस्कारों को त्यागकर व्यक्ति की जगह जाति को इंगित करने लग गए।ऐसे वाचाल लोग तो यही चाहते हैं ‌। क्योंकि यह गांव बिरादरी में आपकी सर्वस्वीकार्यता से कुंठित है।यह भाषायी मलीनता उसी की सूचक है।

मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं रहा ,लेकिन इतिहास में मेरी गहरी रुचि रही है।यहां के राजा-महाराजाओं से लेकर गांव धणियों  तक की गौरव गाथाएं भी सुनी है तो कुछ उनकी कमियों को भी सुना है।वे कमियां भी व्यक्तिगत ही थी,न कि जातिगत।अगर ऐसा होता वीरवर चंद्रसेन,कल्ला रायमलोत ,भीम हरराजोत,दलपतसिंह रायसिंहोत आदि महापराक्रमी विद्रोही नहीं होते। लेकिन कुछ लोगों के निर्णय इन महावीरों के जमीर व खमीर को खटकते रहे।
लेकिन मैंने ऐसे एक भी राजा की कहानी नहीं सुनी है,जिसने केवल एक जाति के प्रतिनिधि के बतौर काम किया हो।ऐसे एक भी राजा का कोई  दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जिसने किसी जाति विशेष की खामियों को निंदा का विषय बनाकर अपनी कुंठाओं का प्रकटीकरण किया हो। हम निंदा करते समय यह भूल जाते हैं कि कमोबेश हम सभी के पूर्वज उनकी रैयत रह चुकी हैं। उन्होंने भले ही परिस्थितियां वश अपने स्वाभिमान से समझौता कर लिया हो लेकिन अपनी रैयत के स्वाभिमान पर आंच नहीं आने दी।
एक उदाहरण दे रहा है।भटनेर में बादशाह अकबर के श्वसुर नसीरुखां ने गरीब रैयत की एक स्त्री को विकृत बोल कह दिए। महाराजा रायसिंहजी ने अपने सेवक तेजा बाघोड़ को कहकर भरे बाजार में जूतों से पिटवाया। क्यों? इसलिए कि वे जनता को अपनी संतति सदृश मानते थे।जनता के स्वाभिमान को आंच नहीं आने दी।
जाट और क्षत्रियों के  क्या संबंध रहें हैं? इतिहास पढ़ेंगे ।तब पता चलेगा।एक उदाहरण दे रहा हूं।
बीकानेर के महाराज पदमसिंह जी मराठों के साथ युद्ध करते हुए  पहले दिन बहुत घायल हो गए।दूसरे दिन उन्होंने अपने प्रिय व विश्वस्त जाट गोविंदजी मूलाणी से कहा कि –
‘गोविन्द !आजके युद्ध में तूं मेरे प्रहार गिनेगा कि मैंने कैसा युद्ध किया है? ताकि तूं प्रत्यक्षदर्शी होकर बाद मेरी वीरता लोगों को बता सके।’
यह सुनकर गोविंद ने जो जवाब दिया ।वो इतिहास के पन्नों पर अमिट है। उन्होंने कहा कि -महाराज!मुझे ईश्वर वो दिन नहीं बताए कि आप लड़े और मैं प्रहार गिनूं!मैं आपका ही सेवक हूं।मैं तो आपके आगे लड़कर वीरगति पाऊं ,मेरी यह अभिलाषा है।और गोविंदजी ने अपनी अभिलाषा पूरी की।
एक व्यक्तिगत कुंठा के प्रकटीकरण के लिए समग्र जाति को इंगित करना ,हल्की शब्दावली लिखना,मेरी दृष्टि में क्षत्रिय के लिए शोभित नहीं है।मैणियां(ताने) देना क्षत्रयों का काम नहीं है,यह स्त्री गत स्वभाव का प्रतीक है। 
इस बात में कोई दोराय नहीं है कि अगर क्षत्रिय लड़ते नहीं,मरते नहीं तो आज जो गंगाजी जा रहें वे मक्का की यात्रा करते ।जो गुरु धर्म के उपदेश दे रहें वे काजी के रूप में दिखाई देते।हमारी आस्था के प्रतीक जो मंदिर दिखाई देते हैं , वहां मस्जिदें दिखाई देती।हम जो हमारे गौरवशाली इतिहास के संदर्भ के गीत कविता पढ़ते हैं , स्मृति,वेद आदि पढ़ते हैं‌‌।उनकी जगह कुरान पढ़ रहें होते।
अतः हमने कभी इस बात पर विचार किया कि हमारी शान के क्षत्रियों के बिना रक्षक कौन था?देवकरणजी ईंदोकली के शब्दों में–
जावै गंगा जिकै,जिकै मक्काजी जाता।
गुरु जिकै दे ग्यान,जिकै काजी कहलाता।
मंदिर बणिया मन्य,जठै बणती मसजीतां।
हिंद पढो इतिहास,ग्यान व्है कविता गीतां।
पुराण वेद स्मृति पढौ,जठै पढता पाठ कुरान रा।
विचारौ कवण क्षत्रियां विनां,सांचा रक्षक शान रा।।
क्षत्रिय केवल अपनी जाति के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं जाना है।अगर जाना जाता है तो उसके चरित्र को लेकर जनमानस में शंका उत्पन्न होती है। क्षत्रिय आमजन के विश्वास का,धणियाप का, आत्मिक लगाव का,व सर्वस्वीकार्यता का प्रतीक है।
ऐसे कुंठित व दमित भावनाओं वाले लोग अपनी जाति के प्रतिनिधि के तौर पर व्यवहार करते हैं।यही कारण है कि एक सीधी सादी कर्मठ जाति से लोग दूरी बनाकर चलते हैं।जिसके लिए उत्तरदायी इस जाति के तमाम संवेदनशील लोग हैं जो मन ही मन में तो ऐसे लोग से पूर्णतया असहमत हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से डरते विरोध अंकित नहीं कराते। लेकिन क्षत्रिय भी कीचड़ में पत्थर फेंकने लग गए तो फिर  बचेगा क्या-
जग में नर हऴकै जिकै,बोलै हऴका बोल।

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