दो पुलिस वालों की मौत के बदले में 22 जनों की ली जान। मथुरा में क्या यह यूपी पुलिस की विफलता नहीं है?
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2 जून की रात को जब मथुरा में एक भीड़ ने सिटी एसपी मुकुल द्विवेदी और थानाधिकारी संतोष यादव पर गोली चलाकर जान ले ली तो बदले में पुलिस ने भीड़ के 22 जनों को मौत के घाट उतार दिया। कई लोग जख्मी हालत में अस्पतालों में भर्ती हैं। एसपी और थानाधिकारी की मौत उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी 22 जनों की। यह सही है कि कानून हाथ में लेकर भीड़ को पुलिस पर गोली नहीं चलानी चाहिए थी लेकिन इसके साथ ही यह भी सवाल उठता है कि पुलिस ने आधुनिक तौर तरीकों से संगठित भीड़ का मुकाबला क्यों नहीं किया?
क्या मथुरा के प्रकरण में उत्तर प्रदेश की पुलिस विफल नहीं है? ऐसा नहीं 2 जून की शाम को मथुरा के जवाहर बाग में पुलिस का भीड़ से अचानक मुकाबला हो गया। पुलिस को यह पता था कि बाबा जयगुरुदेव के समर्थक होने का दावा करने वाले भक्त पिछले 2 साल से जवाहर बाग की 270 एकड़ भूमि पर कब्जा कर बैठे हैं। इन लोगों का नेतृत्व रामवृक्ष यादव नाम का एक सिरफिरा व्यक्ति कर रहा था। पुलिस को यह भी पता था कि रामवृक्ष बेतुकी मांगों को सरकार के समक्ष रखा रहा है, लेकिन इसके बाद भी पुलिस ने जवाहर बाग के अंदर की परिस्थितियों का अध्ययन नहीं किया। अच्छा होता कि पुलिस हजारों की भीड़ से सीधे मुकाबला करने के बजाय पहले घेराबन्दी कर आत्मसमर्पण के लिए रामवृक्ष और उसके समर्थकों को मजबूर करती। जवाहर बाग में बिजली, पानी, रसद आदि की सप्लाई को रोका जा सकता था। पुलिस को इस बात का भी पता नहीं चला कि जवाहर बाग के अन्दर बड़ी संख्या में हथियार भी हैं। पुलिस और सरकार की विफलता ने जहां 2 पुलिस अधिकारियों को मरवा दिया वहीं बेवजह 22 जनों की जान भी चली गई।
यदि सरकारी स्तर पर जवाहर बाग की परिस्थितियों का अध्ययन किया जाता तो न तो 2 पुलिस अधिकारियों, न ही 22 जनों की मौत होती। कायदे से इस पूरे मामले में उन अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए जो परिस्थितियों का अध्ययन करने में विफल रहे।
(एस.पी. मित्तल) (3-06-2016)
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