रोजे के 21वें दिन आतंकियों ने फिरोज, शाहीद, तनवीर, सिराज, आसिफ और सब्जार को मौत के घाट क्यों उतारा? वाकई आतंक का कोई धर्म नहीं होता।

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16 जून को जब पवित्र रमजान माह में 20वें दिन का रोजा हो रहा था, तब निर्दयी आतंकियों ने जम्मू कश्मीर पुलिस के एसएचओ सहित 6 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। शहीद होने वाले पुलिस कर्मी अपनी ड्यूटी पूरी कर जीप से अनंतनाग से लौट रहे थे, तब आतंकियों ने घात लगाकर हमला किया। पवित्र रमजान माह को इबादत का माह माना जाता है। सच्चा मुसलमान रोजे के वक्त चौबीस घंटे में से 17 घंटे पानी भी नहीं पीता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि स्वयं को खुदा से जोड़ सके। रोजेदार एक क्षण के लिए भी अपने मन में बुराई नहीं लाता है। रमजान में आमदनी का एक हिस्सा जरुरतमंदों में बांटा जाता है। लेकिन 17 जून को यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि आतंकियों ने 6 पुलिस कर्मियों के शवों के साथ भी बर्बरता की। इस आतंकी वारदात से साफ जाहिर होता है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। सवाल उठता है कि आखिर इन पुलिस कर्मियों का दोष क्या था? क्या पुलिस कर्मी अपने राज्य और देश की सुरक्षा भी नहीं करें? इस दर्दनाक घटना का एक दु:खद पहलू यह भी है कि 17 जून को जब लश्कर के कमांंडर जुनैल मट्टू और दो अन्य आतंकियों के जनाने निकले तो बड़ी संख्या में कश्मीरी मौजूद रहे। लेकिन शहीद हुए 6 पुलिस कर्मियों की मौत पर अफसोस जताने कोई नहीं आया। इतना ही नहीं जम्मू कश्मीर विधानसभा के विशेष सत्र में भाजपा, कांग्रेस, पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियों के विधायक हंगामा करते रहे, लेकिन किसी भी राजनेता ने पुलिस कर्मियों के शवों पर दो फूल भी अर्पित नहीं किए। इससे प्रतीत होता है कि नेताओं की कथनी और कनी में अंतर है। मानवाधिकारों की बात करने वाले तथा कथित बुद्धिजीवी आतंकियों की मौत पर तो सुरक्षा बलों को कटघरे में खड़ा करते हैं, लेकिन जब पुलिस के जवान मौत के घाट उतार दिए जाते हैं तो ऐसे बुद्धिजीवी की आवाज नहीं निकलती।
(एस.पी.मित्तल) (17-06-17)
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