राजस्थान में भाजपा नेताओं ने आपसी मतभेद दूर नहीं किए तो राष्ट्रीय नेतृत्व छोटे दलों से गठबंधन कर सकता है। इसमें आरएलपी के साथ साथ बसपा भी शामिल हो सकती है। कर्नाटक में जेडीएस के साथ गठबंधन की तैयारी। देवगौड़ा और पीएम मोदी की मुलाकात भी हुई।

हिमाचल में भाजपा की हार का एक कारण प्रदेश के नेताओं में मतभेद भी रहा। इस मतभेद के चलते ही चुनाव में बागी उम्मीदवार भी खड़े हुए। कई क्षेत्रों में तो बागियों की वजह से ही भाजपा के अधिकृत उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा। हिमाचल के प्रदेश स्तर के आंकड़े देखे जाएं तो कांग्रेस और भाजपा के मतों का अंतर एक प्रतिशत से भी कम का रहा है। 2023 में चार बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं। इनमें राजस्थान और कर्नाटक भी शामिल हैं। 13 दिसंबर को संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  और कर्नाटक में जेडीएस के नेता पूर्व पीएम एचडी देवगौड़ा की मुलाकात हुई। हालांकि यह मुलाकात शिष्टाचार वाली बताई जा रही है, लेकिन इस मुलाकात को कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनाव की रणनीति से जोड़ कर देखा जा रहा है। 2018 में भाजपा के अकेले दम पर चुनाव लड़ा, तब 224 में 104 सीटें प्राप्त की, लेकिन फिर भी भाजपा की सरकार नहीं बनी, क्योंकि 78 सीटों वाली कांग्रेस ने 37 सीटों वाली जेडीएस के नेता कुमारी स्वामी को मुख्यमंत्री स्वीकार कर लिया। हालांकि बाद में जेडीएस और कांग्रेस  में तोड़ फोड़ कर भाजपा ने अपनी सरकार बना ली। कर्नाटक में देवगौडा परिवार की प्रभावी स्थिति को देखते हुए भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व जेडीएस से गठबंधन की तैयारी कर रहा है। यदि जेडीएस से गठबंधन होता है तो कर्नाटक में भाजपा की जीत आसान होगी। कर्नाटक में भाजपा की तैयारियों से राजस्थान के भाजपा नेताओं को सबक लेना चाहिए। राजस्थान में भाजपा मजबूत स्थिति में है, लेकिन नेताओं में आपसी मतभेद की वजह से पार्टी को नुकसान होता है। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं चाहता है कि हिमाचल की तरह एक दो प्रतिशत से हार हो जाए। यदि राजस्थान के भाजपा नेताओं ने जल्द ही एकजुटता नहीं दिखाई तो राष्ट्रीय नेतृत्व छोटे दलों से गठबंधन भी कर सकता है ताकि असंतुष्ट नेताओं से होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके। राजस्थान में छोटे दलों का कितना महत्व है, इसका अंदाजा हाल ही में हुए सरदार शहर के उपचुनाव के परिणाम से लगाया जा सकता है। यहां 91 हजार वोट लेकर कांग्रेस के प्रत्याशी अनिल शर्मा की जीत हुई है, जबकि भाजपा को 64 हजार और आरएलपी को 47 हजार वोट मिले हैं। यदि भाजपा और आरएलपी के वोटों को जोड़ा जाए तो एक लाख 10 हजार होते हैं। यानी कांग्रेस से 20 हजार वोट ज्यादा। वोटों की इस गणित से ही विधानसभा चुनाव की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह सही है कि सांसद हनुमान बेनीवाल के नेतृत्व वाली आरएलपी का प्रभाव पूरे प्रदेश में नहीं है, लेकिन आरएलपी जैसी छोटी पार्टियां है जिनका प्रभाव अपने अपने क्षेत्रों में है। इनमें बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) भी शामिल हैं। पिछले कई चुनावों में बसपा को राजस्थान में 6 से 8 सीटें तक मिल रही हैं। उत्तर प्रदेश से लगे जिलों में बसपा का प्रभाव है। 2018 में भी बसपा के 6 विधायक बने। यह बात अलग है कि ये विधायक सत्ता के लालच में कांग्रेस में शामिल हो गए। भाजपा में यूपी से बसपा के समझौता भी कर चुकी है। इसी प्रकार गत लोकसभा चुनाव में भाजपा ने आरएलपी से समझौता किया थ। राष्ट्रीय नेतृत्व का मानना है कि यदि राजस्थान के भाजपा नेता कमल के फूल के नीचे आकर एकजुट हो जाएं तो 2023 में जीत आसान है, लेकिन राष्ट्रीय नेतृत्व की लाख समझाइश के बाद भी राजस्थान में एकता नहीं हो रही है। असंतुष्ट नेताओं को किनारे लगाने के लिए ही छोटे दलों का सहारा लिया जाएगा। राजस्थान में भाजपा नेताओं में मतभेद है, यह अक्सर जाहिर होता है। 

S.P.MITTAL BLOGGER (14-12-2022)
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