विधायिका में न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने का अधिकार तो सांसद और विधायकों का आचरण ही देता है। लोकतंत्र की आड़ में जब बिकाऊ और दागी जनप्रतिनिधि चुने जाएंगे तो विधायिका का यही हश्र होगा। जयपुर में विधायिका का तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन शुरू।

11 जनवरी को राजस्थान के जयपुर में लोकतंत्र के सबसे मजबूत पिलर विधायिका का तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन शुरू हुआ। इस मौके पर राज्यसभा के सभापति व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला के साथ साथ देश की अधिकांश विधानसभा के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सचिव मौजूद रहे। ऐसे सम्मेलन इससे पहले भी 82 बार हो चुके हैं। इस बार भी सम्मेलन का मुख्य फोकस लोकतंत्र के तीनों पिलरों में से विधायिका को सबसे मजबूत दिखाना है। लोकसभा अध्यक्ष और विधानसभाओं के अध्यक्षों का यह पसंद नहीं है कि उनके फैसलों पर न्याय पालिका रोक लगाए या फिर कोई प्रतिकूल टिप्पणी करें। अध्यक्षों का तर्क है कि विधायिका जनता के प्रति जवाबदेह होती है और लोकतंत्र में जनता ही मालिक है। अध्यक्षों का तर्क अपनी जगह है, लेकिन सवाल उठता है कि विधायिका के कार्य क्षेत्र में न्यायपालिका यानी अदालतों को हस्तक्षेप का अधिकार कौन देता है? क्या कभी विधायिका ने अपने सांसद और विधायकों के आचरण पर विचार विमर्श किया है? विधानसभाओं में अध्यक्ष अपनी राजनीतिक विचारधारा के अनुरूप किस प्रकार निर्णय लेते हैं, यह पूरा देश देखता है। उपराष्ट्रपति और राज्यसभा का सभापति बनने पर जगदीप धनखड़ कुछ भी उपदेश दें लेकिन पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते हुए उनके भाषणों और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को लिखे पत्रों को अब पढ़ा जाए तो विधायिका की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक राज्यपाल के रूप में धनखड़ को पश्चिम बंगाल की विधायिका ने कितना अपमानित किया, यह धनखड़ ही जानते हैं। तब ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली टीएमसी के विधायक कैसा आचरण करते थे, यह धनखड़ से ही पूछा जाना चाहिए। विधायिका अपने अधिकारों की दुहाई तो देती है, लेकिन तब चुप हो जाती है, जब महाराष्ट्र में शिवसेना के 55 में से 40 विधायक अलग दल बना कर उद्धव ठाकरे की सरकार को गिरा देते हैं। इतना ही नहीं राजस्थान में सभी 6 बसपा विधायकों को रातों रात कांग्रेस का विधायक मान लिया जाता है। 91 विधायकों के इस्तीफा के मामला तीन माह तक विधानसभा अध्यक्ष के पास लंबित रहे, तब भी विधायिका चाहती है कि न्यायपालिका हस्तक्षेप नहीं करे। विधायिका में कैसे कैसे जनप्रतिनिधि हैं, यह राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से पूछा जाना चाहिए। गहलोत ने अपनी ही कांग्रेस पार्टी के विधायकों पर 10-10 करोड़ रुपए में बिक जाने का आरोप लगाया है। विधानसभाओं के अध्यक्ष अपने अधिकारों को लेकर उपदेश तो बहुत दे रहे हैं, लेकिन अपने विधायकों के आचरण पर चुप रहते हैं। आज विधायिका को मजबूत करने से जरूरी है कि सांसद और विधायकों का आचरण सुधारा जाए। माना तो यही जाता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही सांसद और विधायक चुने जाते हैं, लेकिन हम सब देखते हैं कि चुनाव में जाति धर्म और धन बल का कितना प्रभाव होता है। जिस जाति के वोट सबसे ज्यादा होते हैं, उसी जाति का व्यक्ति सांसद विधायक बनता है। जाति धर्म के आधार पर एक ही क्षेत्र से पीढ़ी दर पीढ़ी सांसद विधायक चुने जाते रहते हैं जहां तक न्यायपालिका का सवाल है तो विधायिका जो कानून बनाती है उसी के अनुरूप फैसले होते हैं। विधायिका खुद अपने कानून तो तोड़ती है, तब न्यायपालिका हस्तक्षेप करती है। विधानसभा अध्यक्ष माने या नहीं लेकिन उनकी निष्ठा उनके राजनीतिक दल के साथ ही होती है। और जब विधानसभा अध्यक्ष खुद की पार्टी का संरक्षण करता है, तब न्यायपालिका को दखल देना ही पड़ता है। 75 साल पहले संविधान बनाने वालों ने आज के सांसद और विधायकों की कल्पना नहीं की होगी। 
S.P.MITTAL BLOGGER (11-01-2023)
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