आखिर राजस्थान में नवनिर्वाचित पार्षदों की बाड़ाबंदी क्यों?

आखिर राजस्थान में नवनिर्वाचित पार्षदों की बाड़ाबंदी क्यों?
निकाय प्रमुख के चुनाव की लम्बी प्रक्रिया भी खरीद फरोख्त को बढ़ाएगी। 

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19 नवम्बर को राजस्थान में 49 निकायों के वार्ड चुनाव के परिणाम घोषित हुए हैं। परिणाम घोषणा के साथ ही नवनिर्वाचित पार्षदों की बाड़ाबंदी हो गई है। आमतौर पर बाड़ा बंदी पशुओं के लिए की जाती है ताकि बिना बुद्धि वाले पशु इधर-उधर नहीं भागे। पशु अपने मालिक के कब्जे में ही रहे इसलिए बाड़े में बंद कर दिए जाते हैं। कई बार गाय, भैंस का दूध कोई चुरा न ले इसलिए भी बाड़ाबंदी की जाती है। हालांकि पशुओं की बाड़ाबंदी से नवनिर्वाचित पार्षदों का कोई ताल्लुक नहीं है, क्योंकि पार्षद बनने वाले तो अक्लमंद होते हैं। कांग्रेस और भाजपा के जिन हालातों में पार्षद चुने गए हैं, उन्हें पता है कि कितना पैसा खर्च हुआ है। निर्दलीय पार्षद तो भाजपा और कांग्रेस दोनों को हरा कर चुने गए हैं। इसलिए उन्हें अपने खर्च के बारे में पता है। जिन निकायों में भाजपा और कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त है उन निकायों के पार्षदों की भी बाड़ाबंदी की गई है। कहा जा रहा है कि निकाय प्रमुख को लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों में ही बगावत हो सकती है। यानि कई पार्षद बाड़ाबंदी को तोड़ कर भाग सकते हैं, या फिर ऐन मौके पर पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ वोट दे सकते हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों की ओर से कहा जा रहा है कि पार्टी की रीति नीति समझाने के लिए पार्षदों को सुरक्षित स्थान पर रखा गया है। लेकिन सब जानते हैं कि पार्षदों की बाड़ा बंदी किस लिए की गई है। बाड़ाबंदी के बाद भी बड़े नेताओं को अपनी पार्टी के पार्षदों पर भरोसा नहीं है। लोकतंत्र में वार्ड पार्षद के चुनाव को राजनीति की पहली सीढ़ी माना जाता है। राजस्थान में सब देख रहे हैं कि लोकतंत्र की पहली सीढ़ी का कितना बुरा हाल है। पार्टी को अपने ही पार्षदों की ईमानदारी पर भरोसा नहीं है। कई बार यह सवाल उठता है कि गली मोहल्ले के नेता पार्षद बनने क्यों चाहते हैं? इस सवाल का जवाब बाड़ाबंदी में देखा जा सकता है। राजनीतिक दल चाहें कितना भी दावा करें, लेकिन सब जानते हैं कि बाड़ाबंदी में नवनिर्वाचित पार्षद क्यों टिके हुए हैं। कई बाड़ाबंदी में तो खरीद फरोख्त का काम खुलेआम हो रहा है। कोई पार्षद बाड़ाबंदी की दीवार फांद कर न भाग जाए इसके लिए अटैची और थैले दिखाए जा रहे हैं। निर्दलीय पार्षदों की कीमत तो अचानक बढ़ गई है। कई निर्दलीय पार्षद स्वयं को निकाय प्रमुख का दावेदार मान रहे हैं।  खरीद फरोख्त के इस माहौल को निकाय प्रमुख की लम्बी चुनाव प्रक्रिया ने और बढ़ाया है। तय कार्यक्रम के अनुसार 21 नवम्बर को निकाय प्रमुख के लिए नामांकन दाखिल होंगे, जबकि 22 नवम्बर को नामांकन पत्रों की जांच की जाएगी। 23 नवम्बर को नाम वापसी हो सकेगी। पूर्व में नामांकन की प्रक्रिया एक दिन में पूरी की जाती थी। लेकिन अब तीन दिन लगाए जा रहे हैं। गंभीर बात तो यह है कि नाम वापसी के बाद 26 नवम्बर को प्रात: दस बजे से दोपहर दो बजे तक मतदान होगा। यानि वार्ड चुनाव परिणाम के सात दिन बाद निकाय प्रमुख का चुनाव रखा गया है। स्वाभाविक है कि इस अवधि में पार्षदों की जोड़तोड़ का काम जमकर होगा। चूंकि प्रदेश में कांग्रेस का शासन है ऐसे में माना जा रहा है कि जोड़तोड़ का ज्यादा फायदा कांग्रेस को ही मिलेगा। पार्षद के चुनाव में भी भाजपा के मुकाबले में कांग्रेस की स्थिति मजबूत रही है। कांग्रेस का प्रयास है कि अधिक से अधिक निकायों पर कब्जा किया जाए। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल बगावत का फायदा उठाने की फिराक में भी है। निकाय प्रमुख को लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों में ही बगावत के हालात बने हुए हैं।
एस.पी.मित्तल) (20-11-19)
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